फिल्म डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, अभिनेता और लेखक इम्तियाज अली का जन्म झारखंड के जमशेदपुर में हुआ था। ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘इम्तिहान’ जैसे टीवी सीरियल्स से करिअर की शुरुआत करने वाले इम्तियाज अली को लोग ‘जब वी मेट’, ‘लव आज कल’ और ‘रॉकस्टार’ जैसी सुपरहिट फिल्मों के लिए जानते हैं। उनकी फिल्में संवेदनाओं को नया आकार देती हैं। यहां वह अपनी ईरान यात्रा के दौरान जगे उन अहसासों का जिक्र कर रहे हैं जो उस सुदूर देश को भारत की जमीन से जोड़ते हैं…
1 अप्रैल, 2016…मैं पार्स से लौटा था। वहां बिताया एक हफ्ता जैसे किसी हवा के झोंके की तरह निकल गया…मगर मुझे लगता है ये झोंका कई चीजें पीछे छोड़ जाएगा। मुझे कागज-कलम लेकर बैठने का मौका न तेहरान में मिल पाया, न इस्फहान और ना ही शिराज में…मैं अब लिखने की कोशिश कर रहा हूं तो अचानक लगता है जैसे कितना कुछ है जो मुझे लिखना-बताना है।
ईरान में मेरी सबसे महत्वपूर्ण और खुशनुमा खोज ये थी कि ये लोग पारसी, पारसे, पार्स या पर्शियन पहले हैं और मुसलमान बाद में…इन दोनों पहचानों में करीब 1000 साल का फासला है। सांस्कृतिक तौर पर उनका नाता भारत में रह रहे पारसियों या जरथूस्थ्रियन्स से ज्यादा है और अपने आस-पास रहने वाले अरब लोगों से बहुत कम। मुझे लगता था कि आपसी फिक्र और बहुत स्पष्ट प्रैक्टिकल स्वभाव की सामाजिक पहचान जो भारतीय पारसियों में दिखती है, वो उनकी ऐतिहासिक नाव यात्रा और उसके बाद भारत में उनके सर्वाइवल की देन है। मगर मेरी ईरान यात्रा में मुझे यह समझ आया कि यह पहचान उनके खून में है। यहां सामने वाला आपके साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा वो खुद अपने साथ चाहता है। रिश्ते बनाते हैं तो हमेशा ये ध्यान रखते हैं कि सामने वाला भी उनकी ही तरह एक परिवार का हिस्सा है और वो सब अंतत: एक ही जैसे हैं।

मैंने ईरान को नूशीन की नजरों से देखा। उसमें, उसके देश, उसके लोगों, उसकी भाषा, उसके परिवार और उनके स्वभाव में मुझे अपनी खुद की परवरिश के कई कतरे नजर आ रहे थे। मैंने वहां जो फिरनी खाई…वो सिर्फ बचपन में ही खाई थी, फिर कभी नहीं मिली। मुझे पर्शियन या फारसी के शब्द इतने समझ में आने लगे थे कि अपने आस-पास होने वाली बातचीत मुझे समझ में आने लगी थी।
इसमें एक खुशी का अहसास था। मैं एक रिश्ता महसूस कर रहा था। इस बात पर संतुष्टि महसूस कर रहा था कि अपने मौजूदा हर काम से दूर मैंने यहां छुटि्टयां बिताने का फैसला किया। वहां के लोगों के असर से मुझे जो स्पष्ट, सरल और निश्छल विचार आए, वो मुझे हमेशा याद रहेंगे। ये मेरे लिए एक बड़ा सुकून था और इसी में मैं उनकी ताकत को महसूस करता हूं। संवेदनशील होना और उसकी पवित्रता बनाए रखना, अपनी भावनाओं को लेकर स्पष्ट होना और पूरी ईमानदारी से उन्हें निभाना…किसी दूसरे इंसान की तलाश के बजाय जो आप महसूस करते हैं, जो आप चाहते हैं उसे पूरी शिद्दत से निभाना। मैं उम्मीद करता हूं कि पार्स का ये असर मुझ पर हमेशा रहेगा क्योंकि ये मुझे खुद से मिलाता है।

‘अपना खुद का देश होना कितना 80 के दशक का ख्याल है…’ ये शब्द थे फिल्म मेकिंक के एक खुशदिल ईरानी प्रोफेसर के, जो तेहरान के एक घर के ड्रॉइंगरूम में बैठे थे। दरअसल, ये एक पार्टी थी और वो प्रोफेसर हमारे मनोरंजन के लिए एक पतला सा तारों वाला लोकल म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट बजा रहे थे। वहां कई संगीतकार थे, कुछ यूरोपीय स्टूडेंट्स और दूसरे लिबरल ईरानी…सभी अपने पार्टीवियर में। लड़कियों ने शॉर्ट ड्रेसेस पहने थे, जो पीना चाहे उसके लिए काउंटर पर व्हिस्की भी मौजूद थी। यह तेहरान के इस सोशियो-इकोनॉमिक क्लास की सबसे बेहतर पार्टियों में से थी। वहां मौजूद कुछ ईरानी अंग्रेजी नहीं जानते थे। डिस्कशन किसी भी भाषा में हो, हममें से कुछ हमेशा बातचीत का रुख नहीं समझ पाते। ज्यादातर लोगों ने शराब नहीं पी थी, मगर एक गर्मजोशी थी जो उस अपार्टमेंट में मौजूद हम सभी को लपेटे हुए थी। ये गर्मजोशी ईरानी थी। इसकी वजह नूशीन थी, जो चाहती थी कि मैं उस रात उसके दोस्तों के साथ अच्छा समय बिताऊं। मगर यह गर्मजोशी वहां मौजूद हर किसी में मौजूद थी, यह गर्मजोशी वहां पूरे माहौल में थी। ऐसा लगता था जैसे ईरान की हवा भी मेहमानों के इर्द-गिर्द कुछ ज्यादा गर्मजोशी से पेश आती है। मैं उस पार्टी में मौजूद हर शख्स से पहली बार…और शायद आखिरी बार मिल रहा था। मगर फिर भी ये बिल्कुल साफ था कि वो लोग वहां मेरे लिए थे और उनके लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं उनके बीच हूं।
आज जब मैं उस कमरे में मौजूद ईरानी लोगों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि वे आजाद लोग थे। वे आजाद थे उन राष्ट्रीय सिद्धांतों से मतभेद रखने के लिए जो उन्हें मानने पड़ते… वे आजाद थे कुछ राष्ट्रीय भावनाओं से सहमत होने के लिए जो उनकी अपने पड़ोसियों के बारे में थी…वो सभी एक-दूसरे से जुड़े थे आत्म सम्मान और खुद्दारी के धागे से।

एक बाहरी के तौर पर मैं जानता था कि इस कमरे में मौजूद लोगों के लिए आने वाले महीनों-सालों में काफी कुछ बदलने वाला था- अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध उठ गए…व्यापार बढ़ रहा है। मैं जानता था कि बाकी सबकी तरह ही वे भी अमेरिकी पूंजीवाद का वह वार झेलने वाले हैं जो देश को बिना पहचान और बिना दिमाग का एक बाजार बना देता है। मगर मैं ये भी जानता था कि इस वार का शिकार बने तमाम देशों में वे शायद उन कुछ देशों में से हैं जो अपनी पहचान बनाए रखने की उम्मीद कर सकते हैं। इसकी वजह है उन्हें हमेशा ताकत देने वाली उनकी परिस्थिति…उन्हें एक साथ जोड़े रखने वाली आत्म सम्मान की वो डोर।